प्रिय पाठकों, कविता संसार जल्द ही एक नए और अधिक वस्तृत रूप में आपके सामने आयेगा |
अनाउंसमेंट
Tuesday, December 27, 2011
Saturday, October 22, 2011
हाँ इजाज़त है अगर कोई कहानी और है
इन कटोरों में अभी थोड़ा सा पानी और है
मज़हबी मज़दूर सब बैठे हैं इनको काम दो
इक इमारत शहर में काफी पुरानी और है
ख़ामुशी कब चीख़ बन जाये किसे मालूम है
ज़ुल्म कर लो जब तलक ये बेज़बानी और है
ख़ुश्क पत्ते आँख में चुभते हैं काँटों की तरह
दश्त में फिरना अलग है बाग़बानी और है
फिर वही उकताहटें होंगी बदन चौपाल में
उम्र के क़िस्से में थोड़ी-सी जवानी और है
बस इसी अहसास की शिद्दत ने बूढ़ा कर दिया
टूटे-फूटे घर में इक लड़की सयानी और है
जहां तक हो सका हमने तुम्हें परदा कराया है
मगर ऐ आंसुओं! तुमने बहुत रुसवा कराया है
चमक यूं ही नहीं आती है खुद्दारी के चेहरे पर
अना को हमने दो दो वक्त का फाका कराया है
बड़ी मुद्दत पे खायी हैं खुशी से गालियाँ हमने
बड़ी मुद्दत पे उसने आज मुंह मीठा कराया है
बिछड़ना उसकी ख्वाहिश थी न मेरी आरजू लेकिन
जरा सी जिद ने इस आंगन का बंटवारा कराया है
कहीं परदेस की रंगीनियों में खो नहीं जाना
किसी ने घर से चलते वक्त ये वादा कराया है
खुदा महफूज रखे मेरे बच्चों को सियासत से
ये वो औरत है जिसने उम्र भर पेशा कराया है
Monday, October 17, 2011
बहुत कठिन है डगर पनघट की।
कैसे मैं भर लाऊँ मधवा से मटकी
मेरे अच्छे निज़ाम पिया।
कैसे मैं भर लाऊँ मधवा से मटकी
ज़रा बोलो निज़ाम पिया।
पनिया भरन को मैं जो गई थी।
दौड़ झपट मोरी मटकी पटकी।
बहुत कठिन है डगर पनघट की।
खुसरो निज़ाम के बल-बल जाइए।
लाज राखे मेरे घूँघट पट की।
कैसे मैं भर लाऊँ मधवा से मटकी
बहुत कठिन है डगर पनघट की।
तू शब्दों का दास रे जोगी
तेरा कहाँ विश्वास रे जोगी
इक दिन विष का प्याला पी जा
फिर न लगेगी प्यास रे जोगी
ये सांसों का का बन्दी जीवन
किसको आया रास रे जोगी
विधवा हो गई सारी नगरी
कौन चला वनवास रे जोगी
पुर आई थी मन की नदिया
बह गए सब एहसास रे जोगी
इक पल के सुख की क्या क़ीमत
दुख हैं बारह मास रे जोगी
बस्ती पीछा कब छोड़ेगी
लाख धरे सन्यास रे जोगी
अँधेरे चारों तरफ़ सायं-सायं करने लगे
चिराग़ हाथ उठाकर दुआएँ करने लगे
तरक़्क़ी कर गए बीमारियों के सौदागर
ये सब मरीज़ हैं जो अब दवाएँ करने लगे
लहूलोहान पड़ा था ज़मीं पे इक सूरज
परिन्दे अपने परों से हवाएँ करने लगे
ज़मीं पे आ गए आँखों से टूट कर आँसू
बुरी ख़बर है फ़रिश्ते ख़ताएँ करने लगे
झुलस रहे हैं यहाँ छाँव बाँटने वाले
वो धूप है कि शजर इलतिजाएँ करने लगे
अजीब रंग था मजलिस का, ख़ूब महफ़िल थी
सफ़ेद पोश उठे काएँ-काएँ करने लगे
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है
ये सब धुआँ है कोई आसमान थोड़ी है
लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है
मैं जानता हूँ के दुश्मन भी कम नहीं लेकिन
हमारी तरहा हथेली पे जान थोड़ी है
हमारे मुँह से जो निकले वही सदाक़त है
हमारे मुँह में तुम्हारी ज़ुबान थोड़ी है
जो आज साहिबे मसनद हैं कल नहीं होंगे
किराएदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है
सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है
Tuesday, October 4, 2011
इतनी पी कैसे कटी रात मुझे होश नहीं
aafriin aafriin
aafriin aafriin
tuu bhii dekhe agar to kahe ham-nashiiN
aafriin aafriin
aisaa dekhaa nahiiN Khuubsuurat ko’ii
jism jaise Ajanta kii muurat ko’ii
jism jaise nigaahoN pe jaaduu ko’ii
jism naGhmaa ko’ai jism Khushbuu ko’ii
jism jaise machaltii hu’ii raaginii
jism jaise mehakti hu’ii chaaNdnii
jism jaise ke khilta hu’aa ek chaman
jism jaise suuraj kii pahlii kiran
jism tarsha hu’aa dilkash-o-dil-nashiiN
sandalii sandalii
marmarii marmarii
chehraa ek phuul kii tarah shaadaab hai
chehraa uskaa hai yaa ko’ii mahtaab hai
chehraa jaise Ghazal, chehraa jaan-e-Ghazal
chehraa jaise kalii, chehraa jaise kaNval
chehraa jaise tasavvur kii tasviir bhii
chehraa ek Khvaab bhii chehraa tabiir bhii
chehraa ko’ii alif lailavii daastaaN
chehraa ek pal yaqiiN, chehraa ek pal gumaaN
chehraa jaise ke chehraa ko’ii bhii nahiiN
maah-ruuh maah-ruuh
maah-jabiiN maah-jabiiN
aaNkheN dekhii to maiN dekhtaa rah gayaa
jaam do aur donon hii do aatishah
aankheN yaa maikade ke ye do baab haiN
aankheN inko kahuuN yaa kahuuN Khvaab haiN
aankheN niichii hu’iiN to hayaa ban gayiiN
aankheN uuNchii hu’iiN to du’aa ban gayiiN
aankheN jhuk kar uThiiN to adaa ban gayiiN
aankheN jin meN haiN qaid aasmaan-o-zamiiN
nargisii nargisii
surmayii surmayii
zulf-e-jaanaN kii bhii lambii hai daastaaN
zulf ke mere dil par hai parchaiiyaaN
zulf jaise ke ummRii hu’ii ho ghaTaa
zulf jaise ke ho ko’ii kaalii balaa
zulf uljhe to duniyaa pareshaan ho
zulf suljhe to ye giit aasaan ho
zulf bikhre siyaah raat chhaane lage
zulf lahraaye to raat gaane lage
zulf zanjiir hai phir bhii kitnii hasiiN
reshmii reshmii
ambariiN ambariin
मै कवि हूँ
मनमोहन के आकर्षण मे भूली भटकी राधाऒं की
जो सूरज को पिघलाती है व्याकुल उन साँसों को देखूँ
कलरव ने सूनापन सौंपा मुझको अभाव से भाव मिले
Jo main khud hi nahi samjha wahi samjha raha hu main.....
Koi lab chhu gaya tha tab, ke ab tak gaa raha hu main...
Bichad kar tumse ab kaise jiya jaye bina tadpe...
Jo main khud hi nahi samjha wahi samjha raha hu main...
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Kisi pathar mei moorat hai, koi pathar ki moorat hai...
Lo hum ne dekh li duniya, jo itni khubsurat hai...
Zamana apni samjhe par mujhe apni khabar ye hai...
Tujhe meri zarurat hai mujhe teri zarurat hai...
Jidhar Dekho Udhar Hi Ishq Ke Bimar Bethe Hain...
Hanseeno Ki Adaaon Pe Sabhi Dil Haar Bethe Hain...
Hazaron Mar-Mite Aur Sainkron Tayyaar Bethe Hain...
Wednesday, September 28, 2011
Saturday, September 24, 2011
चौपदियाँ
कहीं भी छोड़ के अपनी ज़मीं नहीं जाते
हमें बुलाती है दुनिया हमीं नहीं जाते ।
मुहाजरीन से अच्छे तो ये परिन्दे हैं
शिकार होते हैं लेकिन कहीं नहीं जाते ।।
2
उम्र एक तल्ख़ हक़ीकत है 'मुनव्वर' फिर भी
जितना तुम बदले हो उतना नहीं बदला जाता ।
सबके कहने से इरादा नहीं बदला जाता,
हर सहेली से दुपट्टा नहीं बदला जाता ।।
3
मियाँ ! मैं शेर हूँ, शेरों की गुर्राहट नहीं जाती,
मैं लहज़ा नर्म भी कर लूँ तो झुँझलाहट नहीं जाती ।
किसी दिन बेख़याली में कहीं सच बोल बैठा था,
मैं कोशिश कर चुका हूँ मुँह की कड़वाहट नहीं जाती ।।
4
हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है
कभी गाड़ी पलटती है, कभी तिरपाल कटता है ।
दिखाते हैं पड़ोसी मुल्क़ आँखें, तो दिखाने दो
कभी बच्चों के बोसे से भी माँ का गाल कटता है ।।
Saturday, September 3, 2011
Monday, August 29, 2011
jitne the phool, kante
vo to shahar ke sare manzar khagal aaya
Dariya mai ek Sikka mera bhi gir gaya tha
mai..n bhe jamane bhar ke sagar khangal aaya
Submitted by :-
Pushpendra Kumar Choubey
Tuesday, August 23, 2011
मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यों डर रखूँ
जिसमें माँ और बाप की सेवा का शुभ संकल्प हो
हाँ, मुझे उड़ना है लेकिन इसका मतलब यह नहीं
आज कैसे इम्तहाँ में उसने डाला है है मुझे
कौन जाने कब बुलावा आए और जाना पड़े
ऐसा कहना हो गया है मेरी आदत में शुमार
खेल भी चलता रहे और बात भी होती रहे
Monday, August 22, 2011
न मंदिर में सनम होते
हमीं से यह तमाशा है, न हम होते तो क्या होता
न ऐसी मंजिलें होतीं, न ऐसा रास्ता होता
संभल कर हम ज़रा चलते तो आलम ज़ेरे-पा होता
ज़ेरे-पा: under feet
घटा छाती, बहार आती, तुम्हारा तज़किरा होता
फिर उसके बाद गुल खिलते कि ज़ख़्मे-दिल हरा होता
बुलाकर तुमने महफ़िल में हमको गैरों से उठवाया
हमीं खुद उठ गए होते, इशारा कर दिया होता
तेरे अहबाब तुझसे मिल के भी मायूस लॉट गये
तुझे 'नौशाद' कैसी चुप लगी थी, कुछ कहा होता
Tuesday, August 16, 2011
दिखला दिया ये आज देश के विदेशी हुक्मरानों ने
जिंदगी अपनी व्यर्थ गँवा दी आजादी के दीवानों ने....
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Monday, August 1, 2011
नवेदे-अम्न है बेदादे दोस्त जाँ के लिए
रही न तर्ज़े-सितम[3]कोई आसमाँ के लिए
बला से गर मिज़्गाँ-ए-यार[4]तश्ना-ए-ख़ूँ[5]है
रखूँ कुछ अपनी भी मि़ज़्गाँने-ख़ूँफ़िशाँ[6]के लिए
वो ज़िन्दा हम हैं कि हैं रूशनासे-ख़ल्क़[7]- ए -ख़िज्र[8]
न तुम कि चोर बने उम्रे-जाविदाँ[9]के लिए
रहा बला में भी मैं मुब्तिला-ए-आफ़ते-रश्क[10]
बला-ए-जाँ[11]है अदा तेरी इक जहाँ, के लिए
फ़लक न दूर रख उससे मुझे, कि मैं ही नहीं
दराज़-ए-दस्ती-ए-क़ातिल[12]के इम्तिहाँ के लिए
मिसाल यह मेरी कोशिश की है कि मुर्ग़े-असीर[13]
सरे क़फ़स[14]में फ़राहम[15]ख़स[16]आशियाँ [17]के लिए
गदा[18]समझ के वो चुप था मेरी जो शामत आए
उठा और उठ के क़दम, मैंने पासबाँ के लिए
बक़द्रे-शौक़[19]नहीं ज़र्फ़े-तंगना-ए-ग़ज़ल[20]
कुछ और चाहिए वुसअत[21]मेरे बयाँ[22]के लिए
दिया है ख़ल्क[23]को भी ता उसे नज़र न लगे
बना है ऐश तजम्मल हुसैन ख़ाँ[24]के लिए
ज़बाँ पे बारे-ख़ुदाया ये किसका नाम आया
कि मेरे नुत्क़ [25]ने बोसे मेरी ज़ुबाँ के लिए
नसीरे-दौलत-ओ-दीं[26]और मुईने-मिल्लत-ओ-मुल्क़[27]
बना है चर्ख़े-बरीं[28]जिसके आस्ताँ[29]के लिए
ज़माना अह्द[30]में उसके है मह्वे आराइश[31]
बनेंगे और सितारे अब आसमाँ के लिए
वरक़[32]तमाम हुआ और मदह[33]बाक़ी है
सफ़ीना[34]चाहिए इस बह्रे- बेक़राँ[35]के लिए
अदा-ए-ख़ास[36]से 'ग़ालिब' हुआ है नुक़्ता-सरा[37]
सला-ए-आम[38]है याराने-नुक़्ता-दाँ[39]के लिए
ज़हर-ए-ग़म कर चुका था काम मेरा
हुबाब-ए-मौज-ए-रफ़्तार है, नक़्श-ए-क़दम मेरा
मुहब्बत थी चमन से, लेकिन अब ये बेदिमाग़ी है
के मौज-ए-बू-ए-गुल से नाक में आता है दम मेरा
ख़ुश हो ऐ बख़्त कि है आज तेरे सर सेहरा
बाँध शहज़ादा जवाँ बख़्त के सर पर सेहरा
क्या ही इस चाँद-से मुखड़े पे भला लगता है
है तेरे हुस्ने-दिल अफ़रोज़[2] का ज़ेवर[3] सेहरा
सर पे चढ़ना तुझे फबता है पर ऐ तर्फ़े-कुलाह[4]
मुझको डर है कि न छीने तेरा लंबर[5] सेहरा
नाव भर कर ही पिरोए गए होंगे मोती
वर्ना[6] क्यों लाए हैं कश्ती में लगाकर सेहरा
सात दरिया के फ़राहम[7]किए होंगे मोती
तब बना होगा इस अंदाज़ का ग़ज़ भर सेहरा
रुख़[8] पे दूल्हा के जो गर्मी से पसीना टपका
है रगे-अब्रे-गुहरबार[9]सरासर[10] सेहरा
ये भी इक बेअदबी थी कि क़बा[11] से बढ़ जाए
रह गया आन के दामन के बराबर सेहरा
जी में इतराएँ न मोती कि हमीं हैं इक चीज़
चाहिए फूलों का भी एक मुक़र्रर[12]सेहरा
जब कि अपने में समावें न ख़ुशी के मारे
गूँथें फूलों का भला फिर कोई क्योंकर सेहरा
रुख़े-रौशन[13] की दमक गौहरे-ग़ल्ताँ[14] की चमक
क्यूँ न दिखलाए फ़रोग़े-मह-ओ-अख़्तर[15] सेहरा
तार रेशम का नहीं है ये रगे-अब्रे-बहार[16]
लाएगा ताबे-गिराँबारि-ए गौहर[17] सेहरा
हम सुख़नफ़हम[18] हैं 'ग़ालिब' के तरफ़दार[19] नहीं
देखें इस सेहरे से कह दे कोई बढ़कर सेहरा
शब्दार्थ:
↑ बख़्त नाम का राजकुमार
↑ आलौकिक सौंदर्य
↑ अलंकरण
↑ टोपी का किनारा
↑ श्रेणी,क्रम
↑ अन्यथा
↑ जुटाए गए, उपलब्ध करवाए गए
↑ चेहरे
↑ मोती बरसाते बादलों की रग
↑ नि:संदेह
↑ लिबास,वस्त्र
↑ निर्धारित
↑ प्रकाशमान चेहरे
↑ लुढ़कते हुए मोती
↑ चाँद व सितारों की शोभा
↑ मोती बरसाती बहार की रग
↑ रत्नों की बहुमूल्यता
↑ काव्य-रसिक
↑ पक्षधर
कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तूने हमनशीं
इक तीर मेरे सीने में मारा के हाये हाये
वो सब्ज़ा ज़ार हाये मुतर्रा के है ग़ज़ब
वो नाज़नीं बुतान-ए-ख़ुदआरा के हाये हाये
सब्रआज़्मा वो उन की निगाहें के हफ़ नज़र
ताक़तरूबा वो उन का इशारा के हाये हाये
वो मेवा हाये ताज़ा-ए-शीरीं के वाह वाह
वो बादा हाये नाब-ए-गवारा के हाये हाये
आमों की तारीफ़ में
क्यूँ न खोले दर-ए-ख़ज़िना-ए-राज़
ख़ामे का सफ़्हे पर रवाँ होना
शाख़-ए-गुल का है गुल-फ़िशाँ होना
मुझ से क्या पूछता है क्या लिखिये
नुक़्ता हाये ख़िरदफ़िशाँ लिखिये
बारे, आमों का कुछ बयाँ हो जाये
ख़ामा नख़्ले रतबफ़िशाँ हो जाये
आम का कौन मर्द-ए-मैदाँ है
समर-ओ-शाख़, गुवे-ओ-चौगाँ है
ताक के जी में क्यूँ रहे अर्माँ
आये, ये गुवे और ये मैदाँ!
आम के आगे पेश जावे ख़ाक
फोड़ता है जले फफोले ताक
न चला जब किसी तरह मक़दूर
बादा-ए-नाब बन गया अंगूर
ये भी नाचार जी का खोना है
शर्म से पानी पानी होना है
मुझसे पूछो, तुम्हें ख़बर क्या है
आम के आगे नेशकर क्या है
न गुल उस में न शाख़-ओ-बर्ग न बार
जब ख़िज़ाँ आये तब हो उस की बहार
और दौड़ाइए क़यास कहाँ
जान-ए-शीरीँ में ये मिठास कहाँ
जान में होती गर ये शीरीनी
'कोहकन' बावजूद-ए-ग़मगीनी
Friday, July 29, 2011
Main bhav soochi un bhaavon ki.....
Tuesday, July 26, 2011
मुहाजिरनामा
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं ।
कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है,
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं ।
नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में,
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं ।
किसी की आरज़ू के पाँवों में ज़ंजीर डाली थी,
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं ।
पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से,
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं ।
जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं ।
यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद,
हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं ।
हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है,
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं ।
हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है,
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं ।
सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे,
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं ।
हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं,
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं ।
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं ।
हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की,
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं ।
कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं,
के हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं ।
शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी,
के हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं ।
वो बरगद जिसके पेड़ों से महक आती थी फूलों की,
उसी बरगद में एक हरियल का जोड़ा छोड़ आए हैं ।
अभी तक बारिसों में भीगते ही याद आता है,
के छप्पर के नीचे अपना छाता छोड़ आए हैं ।
भतीजी अब सलीके से दुपट्टा ओढ़ती होगी,
वही झूले में हम जिसको हुमड़ता छोड़ आए हैं ।
ये हिजरत तो नहीं थी बुजदिली शायद हमारी थी,
के हम बिस्तर में एक हड्डी का ढाचा छोड़ आए हैं ।
हमारी अहलिया तो आ गयी माँ छुट गए आखिर,
के हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आए हैं ।
महीनो तक तो अम्मी ख्वाब में भी बुदबुदाती थीं,
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आए हैं ।
वजारत भी हमारे वास्ते कम मर्तबा होगी,
हम अपनी माँ के हाथों में निवाला छोड़ आए हैं ।
यहाँ आते हुए हर कीमती सामान ले आए,
मगर इकबाल का लिखा तराना छोड़ आए हैं ।
हिमालय से निकलती हर नदी आवाज़ देती थी,
मियां आओ वजू कर लो ये जूमला छोड़ आए हैं ।
वजू करने को जब भी बैठते हैं याद आता है,
के हम जल्दी में जमुना का किनारा छोड़ आए हैं ।
उतार आये मुरव्वत और रवादारी का हर चोला,
जो एक साधू ने पहनाई थी माला छोड़ आए हैं ।
जनाबे मीर का दीवान तो हम साथ ले आये,
मगर हम मीर के माथे का कश्का छोड़ आए हैं ।
उधर का कोई मिल जाए इधर तो हम यही पूछें,
हम आँखे छोड़ आये हैं के चश्मा छोड़ आए हैं ।
हमारी रिश्तेदारी तो नहीं थी हाँ ताल्लुक था,
जो लक्ष्मी छोड़ आये हैं जो दुर्गा छोड़ आए हैं ।
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नाज़ारा छोड़ आए हैं ।
कल एक अमरुद वाले से ये कहना गया हमको,
जहां से आये हैं हम इसकी बगिया छोड़ आए हैं ।
वो हैरत से हमे तकता रहा कुछ देर फिर बोला,
वो संगम का इलाका छुट गया या छोड़ आए हैं।
अभी हम सोच में गूम थे के उससे क्या कहा जाए,
हमारे आन्सुयों ने राज खोला छोड़ आए हैं ।
मुहर्रम में हमारा लखनऊ इरान लगता था,
मदद मौला हुसैनाबाद रोता छोड़ आए हैं ।
जो एक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,
वहीँ हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं ।
महल से दूर बरगद के तलए मवान के खातिर,
थके हारे हुए गौतम को बैठा छोड़ आए हैं ।
तसल्ली को कोई कागज़ भी चिपका नहीं पाए,
चरागे दिल का शीशा यूँ ही चटखा छोड़ आए हैं ।
सड़क भी शेरशाही आ गयी तकसीम के जद मैं,
तुझे करके हिन्दुस्तान छोटा छोड़ आए हैं ।
हसीं आती है अपनी अदाकारी पर खुद हमको,
बने फिरते हैं युसूफ और जुलेखा छोड़ आए हैं ।
गुजरते वक़्त बाज़ारों में अब भी याद आता है,
किसी को उसके कमरे में संवरता छोड़ आए हैं ।
हमारा रास्ता तकते हुए पथरा गयी होंगी,
वो आँखे जिनको हम खिड़की पे रखा छोड़ आए हैं ।
तू हमसे चाँद इतनी बेरुखी से बात करता है
हम अपनी झील में एक चाँद उतरा छोड़ आए हैं ।
ये दो कमरों का घर और ये सुलगती जिंदगी अपनी,
वहां इतना बड़ा नौकर का कमरा छोड़ आए हैं ।
हमे मरने से पहले सबको ये ताकीत करना है ,
किसी को मत बता देना की क्या-क्या छोड़ आए हैं ।
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है
रोज़ मैं अपने लहू से उसे ख़त लिखता हूँ
रोज़ उंगली मेरी तेज़ाब में आ जाती है
दिल की गलियों से तेरी याद निकलती ही नहीं
सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है
रात भर जागते रहने का सिला है शायद
तेरी तस्वीर-सी महताब[1] में आ जाती है
एक कमरे में बसर करता है सारा कुनबा
सारी दुनिया दिले- बेताब में आ जाती है
ज़िन्दगी तू भी भिखारिन की रिदा[2] ओढ़े हुए
कूचा - ए - रेशमो -किमख़्वाब में आ जाती है
दुख किसी का हो छलक उठती हैं मेरी आँखें
सारी मिट्टी मिरे तालाब में आ जाती है
हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझसे
हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ[1]मुझसे
मेरी रफ़्तार से भागे है बयाबाँ मुझसे
दर्से-उन्वाने-तमाशा[2]बा-तग़ाफ़ुल[3]ख़ुशतर[4]
है निगहे- रिश्ता-ए-शीराज़ा-ए-मिज़गाँ[5]
वहशते-आतिशे-दिल[6]से शबे-तन्हाई[7]में
सूरते-दूद [8]रहा साया गुरेज़ाँ [9]मुझसे
ग़मे-उश्शाक़[10]न हो सादगी आमोज़े-बुताँ[11]
किस क़दर ख़ाना-ए- आईना[12]है वीराँ मुझसे
असरे-आब्ला[13]से है जादा-ए-सहरा-ए-जुनूँ[14]
सूरते-रिश्ता-ए-गोहर[15]है चराग़ाँ मुझसे
बेख़ुदी बिस्तरे-तम्हीदे-फ़राग़त[16]हो जो
पुर है साये की तरह मेरा शस्बिस्ताँ[17]मुझसे
शौक़े-दीदार में गर तू मुझे गर्दन मारे
हो निगह मिस्ले-गुले-शम्मअ परीशाँ मुझसे
बेकसी हाए शबे-हिज्र की वहशत है ये
साया ख़ुरशीदे-क़यामत [18] में है पिन्हाँ मुझसे
गर्दिशे-साग़रे-सद जल्वा-ए-रंगीं तुझसे
आईना दारी-ए-यक दीद-ए-हैराँ [19]मुझसे
निगह-ए-गर्म से इक आग टपकती है ‘असद’
है चराग़ाँ ख़स-ओ-ख़ाशाके-गुलिस्ताँ[20] मुझसे
- ↑ परिचित
- ↑ खेल-शीर्षक की शिक्षा
- ↑ उपेक्षित
- ↑ हर्षित
- ↑ बिखरी पलकों को सी देने वाला धागा मुझसे
- ↑ हृदय की तपिश के डर से
- ↑ अकेलेपन की रात
- ↑ धुएँ की तरह
- ↑ बचता
- ↑ प्रियवर का दु:ख
- ↑ प्रिय प्रशिक्षक
- ↑ दर्पण गृह
- ↑ छालों के प्रभाव से
- ↑ जंगल के रास्तों का उन्माद
- ↑ मोतियों जैसा
- ↑ अवकाश का उपक्रम
- ↑ रात्रि-गृह
- ↑ प्रलय के समय का सूर्य
- ↑ चकित
- ↑ उद्यान का कूड़ा-कचरा जलना
फिर हुआ वक़्त कि हो बाल कुशा मौजे-शराब
दे बते मय[3]को दिल-ओ-दस्ते शना[4] मौजे-शराब
पूछ मत वजहे-सियहमस्ती[5]-ए-अरबाबे-चमन[6]
साया-ए-ताक[7] में होती है हवा मौजे-शराब
है ये बरसात वो मौसम कि अजब क्या है अगर
मौजे-हस्ती[8] को करे फ़ैज़े-हवा[9] मौजे शराब
जिस क़दर रूहे-नबाती[10] है जिगर तश्ना-ए-नाज़[11]
दे है तस्कीं[12]ब-दमे- आबे-बक़ा [13] मौजे-शराब
बस कि दौड़े है रगे-ताक[14] में ख़ूँ हो-हो कर
शहपरे-रंग [15] से है बालकुशा[16] मौजे-शराब
मौज-ए-गुल[17] से चराग़ाँ[18] है गुज़रगाहे ख़याल[19]
है तसव्वुर[20] में जिबस[21] जल्वानुमा मौजे-शराब
नश्शे के पर्दे में है मह्वे[22] तमाशा -ए-दिमाग़
बस कि रखती है सरे- नश-ओ-नुमा[23] मौजे शराब
एक आलम[24] पे है तूफ़ानी-ए-कैफ़ीयते-फ़स्ल[25]
मौज -ए-सब्ज़ा-ए-नौख़ेज़[26] से ता मौजे-शराब
शरहे[27] -हंगामा-ए-हस्ती[28] है, ज़हे[29]मौसमे-गुल
रहबरे-क़तरा ब-दरिया[30] है ख़ुशा[31]मौजे-शराब
होश उड़ते हैं मेरे जल्वा-ए-गुल[32] देख असद
फिर हुआ वक़्त कि हो बालकुशा मौजे-शराब
- ↑ बाल खोले
- ↑ मदिरा की धारा
- ↑ मदिरा पात्र
- ↑ हृदय व हाथ की शक्ति
- ↑ नशे में धुत्त होने का कारण
- ↑ माली
- ↑ अंगूर की बेल की छाँव
- ↑ जीवन धारा
- ↑ वायु का आनंद
- ↑ वनस्पति की आत्मा
- ↑ गर्वपूर्ण प्यास
- ↑ तसल्ली
- ↑ अमृत की बूँद की तरह
- ↑ अंगूर की रग
- ↑ रंगीन पंख
- ↑ बाल खोले हुए
- ↑ पुष्प लहर
- ↑ प्रदीप्त
- ↑ कल्पनाओं की राह
- ↑ कल्पना
- ↑ अत्याधिक
- ↑ छुपा हुआ
- ↑ विकास
- ↑ स्थिति
- ↑ वसंत के आने की उमंग
- ↑ नवोदित हरियाली की बहार
- ↑ व्याख्या
- ↑ जीवन की चहल-पहल
- ↑ धन्य
- ↑ बूँद को नदी तक ले जाने वाला
- ↑ बहुत अच्छा
- ↑ फूल की बहार
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