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कविता संसार --- हिन्दी - उर्दू कविताओं का एक छोटा सा संग्रह।

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Thursday, June 30, 2011

मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय, तुम आते, तब क्या होता।


मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय, तुम आते, तब क्या होता।

मौन रात इस भाँति कि जैसे
कोई गत वीणा पर बजकर
अभी-अभी सोई खोई-सी
सपनों में तारों पर सिर धर,
और दिशाओं से प्रतिध्वनियाँ
जाग्रत सुधियों-सी आती हैं, 
कान तुम्हारी तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता।
मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय, तुम आते, तब क्या होता।

उत्सुकता की अकुलाहट में
मैंने पलक पाँवड़े डाले
अंबर तो मशहूर कि सब दिन
रहता अपना होश सँभाले,
तारों की महफ़िल ने अपनी
आँख बिछा दी किस आशा से,
मेरी भग्न कुटी को आते तुम दिख जाते, तब क्या होता।
मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय, तुम आते, तब क्या होता।

कहाँ सबल तुम, कहाँ निबल मैं, प्यारे, मैं दोनों का ज्ञाता।


कहाँ सबल तुम, कहाँ निबल मैं, प्यारे, मैं दोनों का ज्ञाता।

तप, संयम, साधन करने का
मुझको कम अभ्यास नहीं है
पर इनकी सर्वत्र सफलता
पर मुझको विश्वास नहीं है,
धन्य पराजय मेरी जिसने
बचा लिया दंभी होने से,
कहाँ सबल तुम, कहाँ निबल मैं, प्यारे, मैं दोनों का ज्ञाता।

जो न कहीं भी हारा ऐसा
लेकर मैं पाषाण करूँ क्या,
हो भगवान अगर तो पूजूँ
पर लेकर इंसान करूँ क्या,
स्वर्ग बड़े जीवट वालों का
ऐसों को तो नरक न मिलता,
दया-द्रवित हो इनके ऊपर यदि न इन्हें कोई ठुकराता।
कहाँ सबल तुम, कहाँ निबल मैं, प्यारे, मैं दोनों का ज्ञाता।

बिसरा दो, माना, मेरी थी नादानी।


बिसरा दो, माना, मेरी थी नादानी।
मैं न कहूँगा मलयानिल ने
जो मुझको सिखलाया,
मैं न कहूँगा अलि-कलियों ने
जो कुछ पाठ पढ़ाया,
जो संकेत किए कोकिल ने
छिपकर मंजरियों में,
मुझको थी अपने कवि की लाज निभानी।
बिसरा दो, माना, मेरी थी नादानी।
याद यहाँ रखने की चीजें
किरणों की मुस्कानें,
लहराती अंबर में तारों
की नित नीरव तानें,
मृदुल कल्पनाएँ मानव के
मन में उठनेवाली,
मेरी भूलों की मेरी साँस निशानी।
बिसरा दो, माना, मेरी थी नादानी।

मेरी तो हर साँस मुखर है, प्रिय, तेरे सब मौन सँदेशे


मेरी तो हर साँस मुखर है, प्रिय, तेरे सब मौन सँदेशे।

एक लहर उठ-उठकर फिर-फिर
ललक-ललक तट तक जाती है,
उदासीन जो सदा-सदा से
भाव मरी तट की छाती है,
भाव-भरी यह चाहे तट भी
कभी बढ़े, तो अनुचित क्या है?
मेरी तो हर साँस मुखर है, प्रिय, तेरे सब मौन सँदेशे।

बंद कपाटों पर जाकर जो
बार-बार साँकल खटकाए,
और न उत्तर पाए, उसकी
ग्लानि-लाज को कौन बताए,
पर अपमान पिए पग फिर भी
इस डयोढ़ी पर जाकर ठहरें,
क्या तुझमें ऐसा जो तुझसे मेरे तन-मान-प्राण बँधे-से।
मेरी तो हर साँस मुखर है, प्रिय, तेरे सब मौन सँदेशे।

Ek chhoti si Madhushala (Tribute to Harivanshrai Bachchan)

I'm very inspired by "Harivanshrai Bachchan"s "Madhushala" suddenly these lines came into my mind and i wrote them. Now i'm trying to make it a tribute to the great poet. 


सुध-बुध खोकर झूम रहा हूँ, मैं तो मय पी मतवाला,
जाने कैसी आज पिलाई, तूने मुझको ये हाला ।
प्रीतम तू ही आज बना है इस मधुशाला का साकी,
तेरे गहरे नयन बने हैं मेरे मन की मधुशाला ॥1||

प्रेम कूट कर, प्रेम मिलाकर बनी प्रेम कि ये हाला,
खाली जो मन सबका जग में प्रेम का उसे बना प्याला ।
प्रेम का प्यासा है जग सारा, सबको प्रेम पिला "साकी"
बाँटे से ना कुछ कम होगा, भरी प्रेम की मधुशाला ॥2||


मदिरालय आधारभूत है, बेङी बनी हुई हाला,
कैसे दूर तलक जाएगा, बंधा हुआ पीने वाला ।
मदिरालय की बेङी की मज़बूत कङी तू है "साकी",
जिसके एक छोर पर मयकश, दूजे पर है मधुशाला ॥3||





Wednesday, June 29, 2011

Khuda banaya hamne, ye Khata hamari hai...

shikayaten bhi kare ham to kis zabaan se kare...
Khuda banaya hamne, ye Khata hamari hai...

hamare jism ki uriyaanat pe mat hansna...
ke tum jo odhe hue ho wo ridaa hamari hai...

hamare samne zeba nahin Guroor tumhe...
jaha pe baithe ho tum, wo jagha hamari hai...

तू खुदा नहीं है ज़मीन-ओ-आसमान मत चला !!



यूँ इश्क-ओ-मोहब्बत की दुकान मत चला!..कुछ समझ मेरे जज़्बात गुमान मत चला!!
तू गर सही है तो सामना कर सवालों का!..गर गलत है तो चुपचाप रह ज़ुबां मत चला!!

आ बैठ करीब दो-चार बातें कर लें!... मुँह से फूल बिखेर कमान मत चला!!

कुछ गलतियाँ कर, माफ़ी माँग, इंसान बन!... तू खुदा नहीं है ज़मीन-ओ-आसमान मत चला!!

Main Us Ke Badalne Ka Sabab Soch Raha Hoon...


Bheegi Hui Shaam Ki Dehleez Par Baiha...
Main DiL Ke Sulagne Ka Sabab Soch Raha Hoon...

Duniya Ki To Aadat Hai, Badal Leti Hai Aankhen...
Main Us Ke Badalne Ka Sabab Soch Raha Hoon...

***

Mohabbat me asar hoga to ek din tum ko paa lenge...
Kisi surat se hum bigdi hui Kismat bana lenge...

Sitaron me, Phoolon me, Chaand me tum mil hi jaoge...
Kahaan tak hai mohabbat me haqeeqat, aazma lenge...

***

Aisa nahi ki unke deewane nahi rahe...
Bas unse GUFTGU ke bahane nahi rahe...

Bahut Masroof hain wo aur kuchh hum bhi...
Log samjhte hain Talluk purane nahi rahe...

Chaahe khamosh hoja ya daastan banade !!

Raahe hayaat me kuch haasil to ho safar ka!
Sahraaye dil ko mere ab gulistaan banade!!
Afsana mere dil ka pesh-e-nazar hai tere!
Chaahe khamosh hoja ya daastan banade!!

gareebi ab muskrana chahti hai...

chiraago ko bujhana chahti hai...
hawa bhi aab-o-dana chahti hai...

ameer-e-shahar aankhen band kar lo...
gareebi ab muskrana chahti hai...

सब तमन्नाएँ हों पूरी, कोई ख्वाहिश भी रहे...

सब तमन्नाएँ हों पूरी, कोई ख्वाहिश भी रहे...
चाहता वो है, मुहब्बत मे नुमाइश भी रहे...

आसमाँ चूमे मेरे पँख तेरी रहमत से...
और किसी पेड की डाली पर रिहाइश भी रहे...

उसने सौंपा नही मुझे मेरे हिस्से का वजूद...
उसकी कोशिश है की मुझसे मेरी रंजिश भी रहे...

मुझको मालूम है मेरा है वो, मै उसका हूँ...
उसकी चाहत है की रस्मों की ये बंदिश भी रहे...

मौसमों मे रहे 'विश्वास' के कुछ ऐसे रिश्ते...
कुछ अदावत भी रहे थोडी नवाज़िश भी रहे..

इस अहद में प्यार का सिम्बल तिकोना हो गया...

चाँद है ज़ेरे क़दम, सूरज खिलौना हो गया...
हाँ, मगर इस दौर में क़िरदार बौना हो गया...

शहर के दंगों में जब भी मुफलिसों के घर जले...
कोठियों की लॉन का मंज़र सलौना हो गया...

ढो रहा है आदमी काँधे पे ख़ुद अपनी सलीब...
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा जब बोझ ढोना हो गया...

यूँ तो आदम के बदन पर भी था पत्तों का लिबास...
रूह उरियाँ क्या हुई मौसम घिनौना हो गया...

अब किसी लैला को भी इक़रारे-महबूबी नहीं...
इस अहद में प्यार का सिम्बल तिकोना हो गया...

दोस्त मेरे मजहबी नगमात मत छेडिये...

हम में कोई हून, कोई शक, कोई मंगोल है...
दफ़न है जो बात अब उस बात को मत छेडिये...

है कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज खान...
मिट गए सब, कौम की औकात को मत छेडिये...

छेडिये एक जंग मिलजुल कर गरीबी के खिलाफ...
दोस्त मेरे मजहबी नगमात मत छेडिये....




Tune Dekha Nahi Bando Ka Khuda Ho Jana...

Mere Kehne Se Na Paband-e-Wafa Ho Jana...
Dil Na Mane To Kisi Waqat Juda Ho Jana...

Itna Pyaar Na Kar Kisi Se Ay 'Mohsin'...
Tune Dekha Nahi Bando Ka Khuda Ho Jana...

Ke Zakhm to Rakhta Hun, Par Numaaish Nahi Karta

Girti Hui Deewar ka Humdard to hun Lekin...
Chadte hue Suraj ki Parastish Nahi Karta...

Humdardi-e-Ahbaab Se Main Darta Hun 'Mohsin'...
Ke Zakhm to Rakhta Hun, Par Numaaish Nahi Karta..



***


ungliyan toot gayi patthar tarashte-tarashte 'mohsin'...
jab soorat-e-yaar bani to kharidaar aa gaye...




Gham Aap Jawan hote hain pale nahi jaate...

Gir jaye Zameen par to sambhale nahi jaate...
Bazaar me Dukh Dard Uchhaaley nahi jaate...

Aankhon se nikalte ho Magar Dhyaan me rakhna...
Tum aise kabhi Dil se nikale nahi jaate...

Ab Mujhse in Aankhon ki Hifaazat nahi hoti...
Ab Mujhse Tere Khuwab Sambhale nahi jaate...

Jaate nahi Hum Sehraon me ab Ishq-e-Girifta
Jab tak Dil-e-Majnu ki Dua le nahi jaate...

Jungle ke yeh paudhe hain inhe chhod do 'Mohsin'...
Gham Aap Jawan hote hain pale nahi jaate...

vatan se jaa se jada pyaar aaj bhi hai.........

mat lalkaar ai rakib yuun jamir ko humare,
ki in ragon main baaki lahoo ki dhar aaj bhi hai....
sada dikhaya hai humne aage bhi bata denge,
ki bhagat, ajaad aur kalaam se bete bharat maa ke jaa lutane ko tayaar aaj bhi hai.......
chhod diye hain hathiyaar humne ye aur baat hai.......
par in hathon main sabak-e-shamshir-e-vaar aaj bhi hai.....
na samajh humain kayar jo baat karte hain hum aman ki......
ke humari aawaj main wo sher si dahaad aaj bhi hai....
jeete hain jindagi hum shaan se,
kyun ke maut humari dilruba aaj bhi hai......
mat kamjor samajh in kalaayion ko e kaafir,
jo todti thi ek chot se patthar, in hatheliyon main wo waar aaj bhi hai.....
ishq-o-rang ki mehfil main kitna hi kyun na doob jayen hum......
humain apne vatan se jaa se jada pyaar aaj bhi hai.........

saaqi

Nayan ye tere madhushala,
or tu madhushala ka "saaqi"
aisa jaam pilaya mujko

na kuch hosh raha baki.
sudh-bhudh khokar jhoom raha hoon, 
mai to mai pee matwala,
kon kahan hai kise hosh hai, 

or tu bhi jhoom raha "saaqi"

झूठ के मोहल्ले में जाकर सच खामोश बैठा है

झूठ के मोहल्ले में जाकर सच खामोश बैठा है ,
काफिरों ने नफरतो के अंगार पर हाथ सेंका है,,,

मिटता है मिट जाये गुलिस्तान हिन्दोस्तान ,,
इसको बचाने का उधार जाने किस का ठेंका है ,,

घोल कर पी गए गद्दार इंसानियत अंगूरी में,,,
तीन रंगों का कपडा उतार नंगा कर फेंका है,,,

TUM MERI HO !!

AANKHON ME TASWEER TERI PALKON PAR TERA SAYA HAI,
JAANE KITNA KUCHH KHOOYA HAI TAB JAKAR TUJHKO PAYA HAI!
HAR LAMHA WAQT YE KEHTA HAI AB EK PAL KI NA DERI HO,
BAS EK BAAR TUM BHI KEH DO YE KEH DO KE TUM MERI HO!!

कभी इन ऑखों से बहता नीर देखता हूं

कभी इन ऑखों से बहता नीर देखता हूं
कभी यादों मे खुद की तस्वीर देखता हूं

बारिश की बूंदों से बनती हर लडी मे मैं
किसी बंधन में बांधती जंजीर देखता हूं

वो सवालों जवाबों को भी क्या याद करें
अब तन्हाई मे हाथ की लकीर देखता हूं

उस खुदा से भी अब क्या दुआ करूं मैं
उसे भी इस गली में फकीर देखता हूं

उम्मीद तो नहीं थी कि जी जाऊंगा मैं
आज मैं खुद में बस एक वीर देखता हूं

ये रस्ते, ये मौसम,ये सफर जवां जवां


ये रस्ते, ये मौसम,ये सफर जवां जवां,
है हाथ मे जब हाथ हर मंझर जवां जवां.


ये सुबहा की लाली ये हवा कुछ गिली,
छ्टे गम के बादल ये सहर जवां जवां.


ये पंछी के गाने ये हरियाली राहे,
संग तु है य तेरा असर जवां जवां.


ये धीमी सी बाते ये आंखो मे आंखे,
झुकी तेरे आगे ये नझर जवां जवां.


ये रेशम से लम्स ये संदल की खूश्बु,
ना खत्म हो कभी ये डगर जवां जवां.

माँ की आखों सी लगी हैं बदलियाँ मेरे पिता


जब तलक लगती नहीं हैं बोलिया मेरे पिता
तब तलक उठती नहीं हैं डोलिया मेरे पिता 


आज भी पगड़ी मिलेगी बेकसों की पाँव में 
ठोकरों में आज भी पसलियाँ मेरे पिता 


बेघरो का आसरा थे जो कभी बरसात में 
उन दरखतो पर गिरी है बिजलिया मेरे पिता


आग से कैसे बचाए खुबसूरत ज़िन्दगी 
एक माचिस में कई है तीलिया में पिता


जब तलक जिन्दा रहेगी जाल बुनने की पर्था 
तब तलक फसती रहेंगी मछलिया मेरे पिता


जिसका जी चाहे नचाये और एक दिन फूक दे 
हूँ नहीं हैं काठ की वो पुतलिया मेरे पिता


मैंने बचपन में खिलौना तक कभी माँगा नहीं 
मेरे बेटा मांगता है गोलिया मेरे पिता


आपको गुस्से में देखा और फिर देखा गगन 
माँ की आखों सी लगी हैं बदलियाँ मेरे पिता

अच्छा तजुर्बा सनम मुझे तुम्हारे प्यार में मिला


अच्छा तजुर्बा सनम मुझे तुम्हारे प्यार में मिला,
जो मिला जीत में तुम्हे, वही मुझे हार में मिला...
एक तुझसे मिलकर ज़िन्दगी मुकम्मल हो गई,
अब तक इतने लोगो से मैं बेकार में मिला...

***

तालिब नहीं तेरे हुस्न-ओ-जमाल का जरा भी,
रूह का रिश्ता है, यकीं आए तो निभा लेना...

***


न सही मैं वो सूरज, रौशनी खुशियों की जो तुमपर लुटाऊंगा,
टिमटिमाता दिया ही सही, ग़म के अंधेरो में तो काम आऊंगा...



हजारों हजार कोशिशों के नतीजे कितने खोखले निकले


हजारों हजार कोशिशों के नतीजे कितने खोखले निकले,
जिस्म करीब आ गए, दिलों में मगर वही फासले निकले.....
उसकी फिक्र उसकी याद, में कभी सुकूं देखा करता था,
गौर से देखा तो ये सब, दिल जलाने के मामले निकले...
ये सोचकर दुश्मनों की महफ़िल में हम जा बैठे है विशेष,
दोस्त तो दगा दे गए, शायद ये लोग ही कुछ भले निकले....




vo to tha bas ek ajnabee mere liye




vo to tha bas ek ajnabee mere liye
nhi hui khabar kab bana vo zindagi mere liye


meri sari khushiyan mere har ek gam
vo hi to tha un sab me humraaz mere liye


jane kaise vo dost kuch aisa tha
uski dosti hi to tgi sab se zaroori mere liye


ladhti jhagadti mein us se har pal har lamha
par vo hi to tha ek dost zindagi me mere liye


jane kaise dur hua vo ajnabee dost mujhse KASHISH
SHAYAD ITNI HI THI JAGHA ZINDAGI ME USKI MERE LIYE....

उस बस्ती मे खिलौने उदास रहते हैं...



उस बस्ती मे खिलौने उदास रहते हैं...
जहाँ बच्चे सदा भट्टी के पास रहते हैं...

कभी ऐसा ना हुआ आँधियों मे मैं खोया...
माँ का दिल और दुआ आस पास रहते हैं...

उस बस्ती मे भिखारी कभी नही जाते...
जिस बस्ती मे लोग ख़ास ख़ास रहते हैं....

मैने देखा है यहाँ दिल से सभी नंगे हैं...
के सभी ओढ़ के झूठा लिबास रहते हैं...

जबसे देखा है गले मिलते हुए इंसांन को...
मौत के ख़ौफ़ से बकरे उदास रहते हैं...

अंधेरे और रोशनी का प्यार गहरा है...
रात की प्यास मे तारे उदास रहते हैं...

मुझे न ख़ौफ़ खुदा का है न ही दुनिया का...
मेरे हाथों मे काँच के गिलास रहते हैं...

ये ग़ज़ल अधपका सा आम कोई है जिसमे...
मेरी खटास और तेरी मिठास रहते हैं...

भगवदाश्रम


मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावै ।
जैसें उड़ि जहाज को पच्छी; फिरि जहाज पर आवै ।
कलम-नैन कौ छाँड़ि महातम, और देव कौं ध्वावै ॥
परम गंग कौं छाँड़ि पियासौ, दुरमति कूप खनावै ।
जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यौं करील-फल भावै ।
सूरदास-प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै ॥1॥

हमैं नँदनंदन मोल लिये ।
जम के फंद काटि मुकराए, अभय अजाद किये ।
भाल तिलक, स्रबननि तुलसीदल, मेटे अंक बिये ।
मूँड्यौ मूँड़, कंठ बनमाला, मुद्रा चक्र दिये ।
सब कोउ कहत गुलाम स्याम कौ, सुनत सिरात हिये ।
सूरदास कों और बड़ौ सुख, जूठनि खाइ जिये ॥2॥

राखौ पति गिरिवर गिरि-धारी !
अब तौ नाथ, रह्यौ कछु नाहिन, उघरत माथ अनाथ पुकारी ।
बैठी सभा सकल भूपनि की, भीषम-द्रोन-करन व्रतधारी ।
कहि न सकत कोउ बात बदन पर, इन पतितनि मो अपति बिचारी ।
पाँडु-कुमार पवन से डोलत, भीम गदा कर तैं महि डारी ।
रही न पैज प्रबल पारथ की, जब तैं धरम-सुत धरनी हारी ।
अब तौ नाथ न मेरौ कोई, बिनु श्रीनाथ-मुकुंद-मुरारी ।
सूरदास अवसर के चूकैं फिरि पछितैहौ देखि उघारी ॥2॥

Guru mahima


गुरु बिनु ऐसी कौन करै ?
माला-तिलक मनोहर बाना, लै सिर छत्र धरै ।
भवसागर तैं बूड़त राखै, दीपक हाथ धरै ।
सूर स्याम गुरु ऐसौ समरथ, छिन मैं ले उधरै ॥
***

कृष्ण गोपिका



नंद-नंदन तिय-छबि तनु काछे ।
मनु गोरी साँवरी नारि दोउ, जाति सहज मै आछे ॥
स्याम अंग कुसुमी नई सारी, फल-गुँजा की भाँति ।
इत नागरि नीलांबर पहिरे, जनु दामिनि घन काँति ॥
आतुर चले जात बन धामहिं, मन अति हरष बढ़ाए ।
सूर स्याम वा छबि कौं नागरि, निरखति नैन चुराए ॥1॥

स्यामा स्याम कुंज बन आवत ।
भुज भुज-कंठ परस्पर दीन्है, यह छबि उनहीं पावत ॥
इततैं चंद्रावली-जाति ब्रज, उततैं ये दौउ आए ।
दूरहि तैं चितवति उनहीं तन, इक टक नैन लगाए ॥
एक राधिका दूसरि को है, याकौं नहि पहिचानैं ।
ब्रज-बृषभानु-पुरा-जुवतिनि कौं, इक-इक करि मैं जानौ ॥
यह आई कहूँ और गाँव तैं, छबि साँवरौ सलोनी ।
सूर आजु यह नई बतानी, एकौ अँग न बिलोनी ॥2॥

यह भृषभानु-सुता वह को है ।
याकी सरि जुवती कोउ नाहीं, यह त्रिभुवन-मन मोहै ॥
अति आतुर देखन कौं आवति, निकट जाइ पहिचानौं ।
ब्रज मैं रहति किधौं कहुँ ओरै, बूझे तैं तब जानौं ॥
यह मोहिनी कहाँ तैं आई, परम सलोनी नारी ।
सूर स्याम देखत मुसुक्यानी, करी चतुरई भारी॥3॥

कहि राधा ये को हैं री ।
अति सुंदरी साँवरी सलोनी, त्रिभुवन-जन-जन मोहैं री ।
और नारि इनकी सरि नाहीं, कहौ न हम-तन जोहैं ।
काकी सुता, बधू हैं काकी, जुवती धौं हैं री ॥
जैसी तुम तैसी हैं येऊ, भली बनी तुमसौं है री ।
सुनहु सूर अति चतुर राधिका, येइ चतुरनि की गौ हैंरी ॥4॥

मथुरा तैं ये आई हैं ।
कछु संबंध हमारी इनसौं, तातैं इनहिं बुलाई हैं ॥
ललिता संग गई दधि बेंचन, उनहीं इनहीं चिन्हाई हैं ।
उहै सनेह जानि री सजनी, आजु मिलन हम आई हैं ॥
तब ही की पहिचानि हमारी,ऐसी सहज सुभाई हैं ।
सूरदास मोहिं आवत देखी, आपु संग उठि धाई हैं ॥5॥

इनकौं ब्रजहीं क्यौं न बुलावहु ।
की वृषभान पुरा, की गोकुल, निकटहिं आनि बसावहु ॥
येऊ नवल नवल तुमहूँ हौ, मोहन कौं दोउ भावहु ।
मोकौं देखि कियौ अति घूँघट, बाहैं न लाज छुड़ावहु ।
यह अचरज देख्यौ नहिं कबहुँ, जुवतिहिं जुवति दुरावहु ।
सूर सखी राधा सौं पुनि पुनि, कहति जु हमहिं मिलावहु ॥6॥

मथुरा मैं बस बास तुम्हारौ ?
राधा तैं उपकार भयौ वह, दुर्लभ दरसन भयो तुम्हारी ॥
बार-बार कर गहि निरखति, घूँघट-ओट करौ किन न्यारौ ।
कबहुँक कर परसति कपौल छुइ, चुटकि लेति ह्याँ हमहिं निहारी ॥
कछु मैं हूँ पहिचानति तुमकौं, तुमहि मिलाऊँ नंद-दुलारौ ।
काहें कौं तुम सकुचति हौ जू, कहौ काह है नाम तुम्हारौ ॥
ऐसौ सखी मिली तोहि राधा, तौ हमकौं काहै न बिसारौ ।
सूरदास दंपति मन जान्यौ, यातैं कैसैं होत उबारौ ॥7॥


ऐसी कुँवरि कहाँ तुम पाई ।
राधा हूँ तैं नख-सिख सुंदरि, अब लौं कहाँ दुराई ॥
काकी नारि कौन की बेटी, कौन गाउँ तैं आई ।
देखी सुनि न ब्रज, वृंदावन, सुधि-बुधि हरति पराई ॥
धन्य सुहाग भाग याकौ, यह जुवतिनि की मनभाई ।
सूरदास-प्रभु हरिषि मिले हँसि, लै उर कंठ लगाई ॥8॥


नंद-नंदन हँसे नागरी-मुख चितै, हरिषि चंद्रावली कंठ लाई ।
बाम भुज रवनि, दच्छिन भुजा सखी पर, चले बन धाम सुख कहि न जाई ।
मनौ बिबि दामिनी बीच नव घन सुभग, देखि छबि काम रति सहित लाजै ॥
किधौं कंचन लता बीच सु तमाल तरु, भामिनिनि बीच गिरधर बिराजै ।
गए गृहकुंज, अलिगुंज, सुमननि पुंज, देखि आनंद भरे सूर स्वामी ।
राधिका-रवन, जुवती-रवन, मन-रवन निरखि छवि होत मनकाम कामी ॥9॥

कुछ छोटे सपनो के बदले


कुछ छोटे सपनो के बदले ,
बड़ी नींद का सौदा करने ,
निकल पडे हैं पांव अभागे ,जाने कौन डगर ठहरेंगे !
वही प्यास के अनगढ़ मोती ,
वही धूप की सुर्ख कहानी ,
वही आंख में घुटकर मरती ,
आंसू की खुद्दार जवानी ,
हर मोहरे की मूक विवशता ,चौसर के खाने क्या जाने
हार जीत तय करती है वे , आज कौन से घर ठहरेंगे .
निकल पडे हैं पांव अभागे ,जाने कौन डगर ठहरेंगे !

कुछ पलकों में बंद चांदनी ,
कुछ होठों में कैद तराने ,
मंजिल के गुमनाम भरोसे ,
सपनो के लाचार बहाने ,
जिनकी जिद के आगे सूरज, मोरपंख से छाया मांगे ,
उन के भी दुर्दम्य इरादे , वीणा के स्वर पर ठहरेंगे .
निकल पडे हैं पांव अभागे ,जाने कौन डगर ठहरेंगे

Tuesday, June 28, 2011

मधुशाला / भाग 6 ( Madhushala - 6 )



साकी, जब है पास तुम्हारे इतनी थोड़ी सी हाला,
क्यों पीने की अभिलाषा से, करते सबको मतवाला,
हम पिस पिसकर मरते हैं, तुम छिप छिपकर मुसकाते हो,
हाय, हमारी पीड़ा से है क्रीड़ा करती मधुशाला।।१०१।
साकी, मर खपकर यदि कोई आगे कर पाया प्याला,
पी पाया केवल दो बूंदों से न अधिक तेरी हाला,
जीवन भर का, हाय, परिश्रम लूट लिया दो बूंदों ने,
भोले मानव को ठगने के हेतु बनी है मधुशाला।।१०२।
जिसने मुझको प्यासा रक्खा बनी रहे वह भी हाला,
जिसने जीवन भर दौड़ाया बना रहे वह भी प्याला,
मतवालों की जिहवा से हैं कभी निकलते शाप नहीं,
दुखी बनाया जिसने मुझको सुखी रहे वह मधुशाला!।१०३।
नहीं चाहता, आगे बढ़कर छीनूँ औरों की हाला,
नहीं चाहता, धक्के देकर, छीनूँ औरों का प्याला,
साकी, मेरी ओर न देखो मुझको तनिक मलाल नहीं,
इतना ही क्या कम आँखों से देख रहा हूँ मधुशाला।।१०४।
मद, मदिरा, मधु, हाला सुन-सुन कर ही जब हूँ मतवाला,
क्या गति होगी अधरों के जब नीचे आएगा प्याला,
साकी, मेरे पास न आना मैं पागल हो जाऊँगा,
प्यासा ही मैं मस्त, मुबारक हो तुमको ही मधुशाला।।१०५।
क्या मुझको आवश्यकता है साकी से माँगूँ हाला,
क्या मुझको आवश्यकता है साकी से चाहूँ प्याला,
पीकर मदिरा मस्त हुआ तो प्यार किया क्या मदिरा से!
मैं तो पागल हो उठता हूँ सुन लेता यदि मधुशाला।।१०६।
देने को जो मुझे कहा था दे न सकी मुझको हाला,
देने को जो मुझे कहा था दे न सका मुझको प्याला,
समझ मनुज की दुर्बलता मैं कहा नहीं कुछ भी करता,
किन्तु स्वयं ही देख मुझे अब शरमा जाती मधुशाला।।१०७।
एक समय संतुष्ट बहुत था पा मैं थोड़ी-सी हाला,
भोला-सा था मेरा साकी, छोटा-सा मेरा प्याला,
छोटे-से इस जग की मेरे स्वर्ग बलाएँ लेता था,
विस्तृत जग में, हाय, गई खो मेरी नन्ही मधुशाला!।१०८।
बहुतेरे मदिरालय देखे, बहुतेरी देखी हाला,
भाँत भाँत का आया मेरे हाथों में मधु का प्याला,
एक एक से बढ़कर, सुन्दर साकी ने सत्कार किया,
जँची न आँखों में, पर, कोई पहली जैसी मधुशाला।।१०९।
एक समय छलका करती थी मेरे अधरों पर हाला,
एक समय झूमा करता था मेरे हाथों पर प्याला,
एक समय पीनेवाले, साकी आलिंगन करते थे,
आज बनी हूँ निर्जन मरघट, एक समय थी मधुशाला।।११०।
जला हृदय की भट्टी खींची मैंने आँसू की हाला,
छलछल छलका करता इससे पल पल पलकों का प्याला,
आँखें आज बनी हैं साकी, गाल गुलाबी पी होते,
कहो न विरही मुझको, मैं हूँ चलती फिरती मधुशाला!।१११।
कितनी जल्दी रंग बदलती है अपना चंचल हाला,
कितनी जल्दी घिसने लगता हाथों में आकर प्याला,
कितनी जल्दी साकी का आकर्षण घटने लगता है,
प्रात नहीं थी वैसी, जैसी रात लगी थी मधुशाला।।११२।
बूँद बूँद के हेतु कभी तुझको तरसाएगी हाला,
कभी हाथ से छिन जाएगा तेरा यह मादक प्याला,
पीनेवाले, साकी की मीठी बातों में मत आना,
मेरे भी गुण यों ही गाती एक दिवस थी मधुशाला।।११३।
छोड़ा मैंने पंथ मतों को तब कहलाया मतवाला,
चली सुरा मेरा पग धोने तोड़ा जब मैंने प्याला,
अब मानी मधुशाला मेरे पीछे पीछे फिरती है,
क्या कारण? अब छोड़ दिया है मैंने जाना मधुशाला।।११४।
यह न समझना, पिया हलाहल मैंने, जब न मिली हाला,
तब मैंने खप्पर अपनाया ले सकता था जब प्याला,
जले हृदय को और जलाना सूझा, मैंने मरघट को
अपनाया जब इन चरणों में लोट रही थी मधुशाला।।११५।
कितनी आई और गई पी इस मदिरालय में हाला,
टूट चुकी अब तक कितने ही मादक प्यालों की माला,
कितने साकी अपना अपना काम खतम कर दूर गए,
कितने पीनेवाले आए, किन्तु वही है मधुशाला।।११६।
कितने होठों को रक्खेगी याद भला मादक हाला,
कितने हाथों को रक्खेगा याद भला पागल प्याला,
कितनी शक्लों को रक्खेगा याद भला भोला साकी,
कितने पीनेवालों में है एक अकेली मधुशाला।।११७।
दर दर घूम रहा था जब मैं चिल्लाता - हाला! हाला!
मुझे न मिलता था मदिरालय, मुझे न मिलता था प्याला,
मिलन हुआ, पर नहीं मिलनसुख लिखा हुआ था किस्मत में,
मैं अब जमकर बैठ गया हूँ, घूम रही है मधुशाला।।११८।
मैं मदिरालय के अंदर हूँ, मेरे हाथों में प्याला,
प्याले में मदिरालय बिंबित करनेवाली है हाला,
इस उधेड़-बुन में ही मेरा सारा जीवन बीत गया -
मैं मधुशाला के अंदर या मेरे अंदर मधुशाला!।११९।
किसे नहीं पीने से नाता, किसे नहीं भाता प्याला,
इस जगती के मदिरालय में तरह-तरह की है हाला,
अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार सभी पी मदमाते,
एक सभी का मादक साकी, एक सभी की मधुशाला।।१२०।

दिल जलाया तो अंजाम क्या हुआ मेरा


दिल जलाया तो अंजाम क्या हुआ मेरा
लिखा है तेज हवाओं ने मर्सिया मेरा

कहीं शरीफ नमाज़ी कहीं फ़रेबी पीर
कबीला मेरा नसब मेरा सिलसिला मेरा

किसी ने जहर कहा है किसी ने शहद कहा
कोई समझ नहीं पाता है जायका मेरा

मैं चाहता था ग़ज़ल आस्मान हो जाये
मगर ज़मीन से चिपका है काफ़िया मेरा

मैं पत्थरों की तरह गूंगे सामईन में था
मुझे सुनाते रहे लोग वाकिया मेरा

उसे खबर है कि मैं हर्फ़-हर्फ़ सूरज हूँ
वो शख्स पढ़ता रहा है लिखा हुआ मेरा

जहाँ पे कुछ भी नहीं है वहाँ बहुत कुछ है
ये कायनात तो है खाली हाशिया मेरा

बुलंदियों के सफर में ये ध्यान आता है
ज़मीन देख रही होगी रास्ता मेरा

इन्तेज़मात नये सिरे से सम्भाले जायें

इन्तेज़मात नये सिरे से सम्भाले जायें|
जितने कमज़र्फ़ हैं महफ़िल से निकाले जायें|

मेरा घर आग की लपटों में छुपा है लेकिन,
जब मज़ा है तेरे आँगन में उजाले जायें|

ग़म सलामत है तो पीते ही रहेंगे लेकिन,
पहले मैख़ाने की हालत सम्भाले जायें|

ख़ाली वक़्तों में कहीं बैठ के रोलें यारो,
फ़ुर्सतें हैं तो समन्दर ही खगांले जायें|

ख़ाक में यूँ न मिला ज़ब्त की तौहीन न कर,
ये वो आँसू हैं जो दुनिया को बहा ले जायें|

हम भी प्यासे हैं ये एहसास तो हो साक़ी को,
ख़ाली शीशे ही हवाओं में उछाले जायें|

आओ शहर में नये दोस्त बनायें "राहत"
आस्तीनों में चलो साँप ही पाले जायें|

क्यों प्यार किया




जिसने छूकर मन का सितार,
कर झंकृत अनुपम प्रीत-गीत,
ख़ुद तोड़ दिया हर एक तार,
मैंने उससे क्यों प्यार किया ?

बरसा जीवन में ज्योतिधार,
जिसने बिखेर कर विविध रंग,
फिर ढाल दिया घन अंधकार,
मैंने उससे क्यों प्यार किया ?

मन को देकर निधियां हज़ार,
फिर छीन लिया जिसने सब कुछ,
कर दिया हीन चिर निराधार,
मैंने उससे क्यों प्यार किया ?

जिसने पहनाकर प्रेमहार,
बैठा मन के सिंहासन पर,
फिर स्वयं दिया सहसा उतार,
मैंने उससे क्यों प्यार किया ?

नादान प्रेमिका से


तुमको अपनी नादानी पर
जीवन भर पछताना होगा!

मैं तो मन को समझा लूंगा
यह सोच कि पूजा था पत्थर--
पर तुम अपने रूठे मन को
बोलो तो, क्या उत्तर दोगी ?
नत शिर चुप रह जाना होगा!
जीवन भर पछताना होगा!

मुझको जीवन के शत संघर्षों में
रत रह कर लड़ना है ;
तुमको भविष्य की क्या चिन्ता,
केवल अतीत ही पढ़ना है!
बीता दुख दोहराना होगा!
जीवन भर पछताना होगा!

Monday, June 27, 2011

ऊधो, मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।



ऊधो, मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।
बृंदावन गोकुल तन आवत सघन तृनन की छाहीं॥
प्रात समय माता जसुमति अरु नंद देखि सुख पावत।
माखन रोटी दह्यो सजायौ अति हित साथ खवावत॥
गोपी ग्वाल बाल संग खेलत सब दिन हंसत सिरात।
सूरदास, धनि धनि ब्रजबासी जिनसों हंसत ब्रजनाथ॥

शब्दार्थ :- गोकुल तन = गोकुल की तरफ। तृनन की = वृक्ष-लता आदि की। हित =स्नेह। सिरात = बीतता था।

भावार्थ :- निर्मोही मोहन को अपने ब्रज की सुध आ गई। व्याकुल हो उठे, बाल्यकाल का एक-एक दृष्य आंखों में नाचने लगा। वह प्यारा गोकुल, वह सघन लताओं की शीतल छाया, वह मैया का स्नेह, वह बाबा का प्यार, मीठी-मीठी माखन रोटी और वह सुंदर सुगंधित दही, वह माखन-चोरी और ग्वाल बालों के साथ वह ऊधम मचाना ! कहां गये वे दिन? कहां गई वे घड़ियां ?

ऊधो, मन माने की बात।


ऊधो, मन माने की बात।
दाख छुहारो छांड़ि अमृतफल, बिषकीरा बिष खात॥
जो चकोर कों देइ कपूर कोउ, तजि अंगार अघात।
मधुप करत घर कोरि काठ में, बंधत कमल के पात॥
ज्यों पतंग हित जानि आपुनो दीपक सो लपटात।
सूरदास, जाकौ जासों हित, सोई ताहि सुहात॥

टिप्पणी :- `अंगार अघात,' तजि अंगार न अघात' भी पाठ है उसका भी यही अर्थ होता है, अर्थात अंगार को छोड़कर दूसरी चीजों से उसे तृप्ति नहीं होती। `तजि अंगार कि अघात' भी एक पाठान्तर है। उसका भी यही अर्थ है।

शब्दार्थ :- `अंगार अघात,' =अंगारों से तृप्त होता है , प्रवाद है कि चकोर पक्षी अंगार चबा जाता है। कोरि =छेदकर। पात =पत्ता।

ऊधौ, कर्मन की गति न्यारी।


ऊधौ, कर्मन की गति न्यारी।
सब नदियाँ जल भरि-भरि रहियाँ सागर केहि बिध खारी॥
उज्ज्वल पंख दिये बगुला को कोयल केहि गुन कारी॥
सुन्दर नयन मृगा को दीन्हे बन-बन फिरत उजारी॥
मूरख-मूरख राजे कीन्हे पंडित फिरत भिखारी॥
सूर श्याम मिलने की आसा छिन-छिन बीतत भारी॥
भावार्थ :- गोपियाँ भगवान कृष्ण के प्रति अपने प्रेम के प्रतिदानस्वरूप विरह को प्राप्त करती हैं। लेकिन वे इसे विधि का विधान कहकर आश्वस्त रहती हैं। वे ऊधो से कहती हैं कि हे ऊधो, प्रकृति का नियम एकदम उलटा है। धरती पर जितनी भी नदियाँ हैं वे सब की सब अपना मीठा जल सागर में डाल रही हैं लेकिन वह फिर भी खारा ही है। छद्म-तपस्वी बगुले को उसने सफेद रंग दिया है जबकि मीठा बोलने वाली कोयल को काला बना दिया। सुन्दर नेत्रों वाला हिरन जंगल में मारा-मारा फिरता है। अनपढ़ लोग धन से खेलते हैं जबकि ज्ञानी लोग अपना जीवन भीख माँगकर पूरा करते हैं। सूरदास कहते हैं कि गोपियों ने कहा--इसी तरह श्याम से मिलने की हमारी इच्छा जितनी बढ़ती जाती है, उतना ही यह वियोग हमें भारी प्रतीत होता है।

करि की चुराई चाल सिंह को चुरायो लंक

करि की चुराई चाल सिंह को चुरायो लंक
दूध को चुरायो रंग, नासा चोरी कीर की
पिक को चुरायो बैन, मृग को चुरायो नैन
दसन अनार, हाँसी बीजुरी गँभीर की
कहे कवे ‘बेनी’ बेनी व्याल की चुराय लीनी
रति रति सोभा सब रति के सरीर की
अब तो कन्हैया जी को चित हू चुराय लीनो
चोरटी है गोरटी या छोरटी अहीर की

सुबह की गोरी


रात की काली चादर ओढ़े
मुंह को लपेटे
सोई है कब से
रूठ के सब से
सुबह की गोरी
आँख न खोले
मुंह से न बोले
जब से किसी ने
कर ली है सूरज की चोरी

आओ
चल के सुरज ढूंढे
और न मिले तो
किरण किरण फिर जमा करे हम
और इक सूरज नया बनायें
सोई है कब से
रूठ के सब से
सुबह की गोरी
उसे जगाएं
उसे मनाएं

मै पा सका न कभी..

मै पा सका न कभी इस खलीस से छुटकारा
वो मुझसे जीत भी सकता था जाने क्यों हारा

बरस के खुल गए आंसूं निथर गई है फिजां
चमक रहा है सरे-शाम दर्द का तारा

किसी की आँख से टपका था इक अमानत है
मेरी हथेली पे रखा हुआ ये अंगारा

जो पर समेटे तो इक शाख भी नहीं पाई
खुले थे पर तो मेरा आसमान था सारा

वो सांप छोड़ दे डसना ये मै भी कहता हूँ
मगर न छोड़ेंगे लोग उसको गर न फुंकारा

तमन्‍ना फिर मचल जाए


तमन्‍ना फिर मचल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ
यह मौसम ही बदल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ


मुझे गम है कि मैने जिन्‍दगी में कुछ नहीं पाया
ये ग़म दिल से निकल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ


नहीं मिलते हो मुझसे तुम तो सब हमदर्द हैं मेरे
ज़माना मुझसे जल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ


ये दुनिया भर के झगड़े, घर के किस्‍से, काम की बातें
बला हर एक टल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ

Wednesday, June 22, 2011

For Madhushala.......

hain amar prem se ye bhaw tumhare....
hai amar in bhawon ka har shabd nirala.....
ho jaye amar har isko sunne aur kehne wala....
rahoge amar tum bhi hai HARI yoon hi,
jaise amar hai ye tumhari madhushala........... 

तेरी शिकायते भी कमाल है

 तेरी शिकायते भी कमाल है...तेरे मलाल भी कमाल है,
तेरी झिद का अब क्या करे...तेरी किस्मत ही कमाल है."


"इन्सां होता तो मान भी जाता..खुदा को मनाने निकले हो,
कितने अजीब शख्स हो...खुद को आझमाने निकले हो."

J
" जो पहेले ही खाक हुए बैठे है....अब उन्हे क्या जलाओगे,
अश्को की बारिशो मे भीगे हुए को...तुम क्या खाक रुलाओगे."


"उन ख्वाबो को खझाने सा संभाल के रख्खा है...
तेरी हर एक याद को आंखो मे सजाये रख्खा है."

अब नये सिरे से चलो शुरुआत करते है

अब नये सिरे से चलो शुरुआत करते है,
हर्फो मे बयां दिल के जझबात करते है.

बा होशो हवास मे दिलो जां मेरे नाम किये थे,
आज सुपुर्द तुम्हे वो तमाम कागझात करते है.

है कुछ तो कमाल के लोग मरते है तुम पर,
कोइ मुजपे भी हो फना वो करामात करते है.

रुबरु करना ..ना करना तेरे हक मे है खुदा,
ले देख तेरे बंदे ख्वाब मे मुलाकात करते है.

मिलना तुजसे मुमकीन ही नही किसी हाल...
बेवजह खुद ही से रोजाना खुराफात करते है.

Kashish

zingadi ki uljhano me gum thi mein is tarah se KASHISH..
fursat mili hai aaj to ansu rukte nhi dekh ke kya kuch gawa dia hai meine"

kaise na jane vo kareeb hote gaye

kaise na jane vo kareeb hote gaye
kaise na jane vo dil me utarte gaye

zindagi me na thi koi bhi umang
kaise na jane vo zindagi bante gaye

gumsum thi mein nna jane kab se
kaise na jane vo in labo ki muskhurahat bante gaye

bhojhal si is duniya me meri
kaise na jane vo itna sukh bharte gaye

par jab thi mujhe unki zaroort sab se jayada KASHISH
KAISE NA JANE VO HUM DUR HOTE GAYE......

जब भी यह दिल उदास होता है


जब भी यह दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है
होंठ चुपचाप बोलते हों जब
सांस कुछ तेज़-तेज़ चलती हो
आंखें जब दे रही हों आवाज़ें
ठंडी आहों में सांस जलती हो
आँख में तैरती हैं तसवीरें
तेरा चेहरा तेरा ख़याल लिए
आईना देखता है जब मुझको
एक मासूम सा सवाल लिए
कोई वादा नहीं किया लेकिन
क्यों तेरा इंतजार रहता है
बेवजह जब क़रार मिल जाए
दिल बड़ा बेकरार रहता है
जब भी यह दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है

Tuesday, June 21, 2011

अ-आ, इ-ई, अ-आ, इ-ई


अ-आ, इ-ई, अ-आ, इ-ई
मास्टर जी की आ गई चिट्ठी
चिट्ठी में से निकली बिल्ली
बिल्ली खाए जर्दा-पान
काला चश्मा पीले कान
कान में झुमका, नाक में बत्ती
हाथ में जलती अगरबत्ती
अगर हो बत्ती कछुआ छाप
आग में बैठा पानी ताप
ताप चढ़े तो कम्बल तान
वी.आई.पी. अंडरवियर-बनियान
अ-आ, इ-ई, अ-आ, इ-ई
मास्टर जी की आ गई चिट्ठी
चिट्ठी में से निकला मच्छर
मच्छर की दो लंबी मूँछें
मूँछ पे बाँधे दो-दो पत्थर
पत्थर पे इक आम का झाड़
पूंछ पे लेके चले पहाड़
पहाड़ पे बैठा बूढ़ा जोगी
जोगी की इक जोगन होगी
- गठरी में लागा चोर
मुसाफिर देख चाँद की ओर
पहाड़ पै बैठा बूढ़ा जोगी
जोगी की एक जोगन होगी
जोगन कूटे कच्चा धान
वी.आई.पी. अंडरवियर बनियान
अ-आ, इ-ई, अ-आ, इ-ई
मास्टर जी की आ गई चिट्ठी
चिट्ठी में से निकला चीता
थोड़ा काला थोड़ा पीला
चीता निकला है शर्मीला
घूँघट डालके चलता है
मांग में सेंदुर भरता है
माथे रोज लगाए बिंदी
इंगलिश बोले मतलब हिंदी
‘इफ’ अगर ‘इज’ है, ‘बट’ पर
‘व्हॉट’ माने क्या
इंगलिश में अलजेब्रा छान
वी.आई.पी. अंडरवियर-बनियान

एक-एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब


एक-एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
ख़ून-ए-जिगर, वदीअ़त-ए-मिज़गान-ए-यार[1] था

अब मैं हूँ और मातम-ए-यक-शहर-आरज़ू[2]
तोड़ा जो तूने आईना तिमसाल-दार[3] था

गलियों में मेरी नाश[4] को खींचे फिरो कि मैं
जां-दादा-ए-हवा-ए-सर-ए-रहगुज़ार[5] था

मौज-ए-सराब-ए-दश्त-ए-वफ़ा[6] का न पूछ हाल
हर ज़र्रा मिस्ल-ए-जौहर-ए-तेग़[7] आबदार[8] था

कम जानते थे हम भी ग़म-ए-इश्क़ को पर अब
देखा तो कम हुए पे ग़म-ए-रोज़गार[9] था

किस का जुनून-ए-दीद तमन्ना-शिकार था
आईना-ख़ाना वादी-ए-जौहर[10]-ग़ुबार था

किस का ख़याल आईना-ए-इन्तिज़ार था
हर बरग[11]-ए-गुल के परदे में दिल बे-क़रार था

जूं[12] ग़ुन्चा-ओ-गुल आफ़त-ए-फ़ाल-ए-नज़र[13] न पूछ
पैकां[14] से तेरे जलवा-ए-ज़ख़म आशकार[15] था

देखी वफ़ा-ए-फ़ुरसत-ए-रंज-ओ-निशात-ए-दहर[16]
ख़मियाज़ा यक दराज़ी-ए-उमर-ए-ख़ुमार[17] था

सुबह-ए-क़यामत एक दुम-ए-गुरग[18] थी असद
जिस दश्त[19] में वह शोख़-ए-दो-आ़लम[20] शिकार था
शब्दार्थ:
  1.  प्रेमी के पलकों की धरोहर
  2.  अभिलाषाओं रूपी महल के उजड़ जाने का शोक
  3.  चित्रमय
  4.  लाश
  5.  गली-2 घूमने-फिरने की इच्छा का पीड़ित
  6.  वफा के मरुस्थल की मरीचिका
  7.  तलवार की धार की तरह
  8.  चमकदार
  9.  संसार-सम्बंधी ग़म
  10.  मिट्टी
  11.  पत्ती
  12.  जैसे
  13.  निगाह के जादू की दुर्घटना
  14.  तरकश
  15.  प्रकट
  16.  संसार की खुशी और गम के मौके की निष्ठा
  17.  अंगड़ाई में जिंदगी भर का नशा
  18.  अकेले भेड़िये की पूँछ
  19.  रेगिस्तान
  20.  बहुत चंचल

Kavya kosh is now Kavita Sansar

http://merikuchmanpasandkavitayein.blogspot.in is now http://www.kavitasansar.com/



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