जब नन्हा सा कोई बचपन
मजदूरी में पिस जाता हो
मन में बसा हुआ हर सपना
आँखों से रिस जाता हो
जब जर्जर तन पर कोई कपड़ा
कई जगहों से घिस जाता हो
बहती हो आँसू की धारा
पर चेहरा मुस्काता हो
तब साहस करके कोई लेखनी
भावों में अनुभव को जनती है
ऐसे में कविता बनती है
ऐसे में कविता बनती है
(1)
जब किसी जगह पर छोटे बच्चे
भूख के करण बिलख रहे हों
और कहीं पर नेताजी की
महफ़िल में प्याले छलक रहे हों
जब निर्धनता से हार मानकर
कुछ लोग भाग्य पर सिसक रहे हों
और कुछों के घर व आँगन
धन-अम्बरों से खनक रहे हों
जब कहीं अँधेरा छाया हो
और कहीं दिवाली मनती है
ऐसे में कविता बनती है
ऐसे में कविता बनती है
(2)
जब सच से नाता रखने वाले
अन्यायों से हार तरहे हों
रिश्वत लेकर कुछ अधिकारी
सच की गरिमा को मार रहे हों
जब कपटी और बेईमान लोग
झूठे आडम्बर धार रहे हों
और सभी बेबस हो करके
इनको ही स्वीकार रहे हों
जब अहंकार अभिमानों की
हर और ध्वजाएँ तनती हैं
ऐसे में कविता बनती है
ऐसे में कविता बनती है
(3)
-कालीशंकर सौम्य
मजदूरी में पिस जाता हो
मन में बसा हुआ हर सपना
आँखों से रिस जाता हो
जब जर्जर तन पर कोई कपड़ा
कई जगहों से घिस जाता हो
बहती हो आँसू की धारा
पर चेहरा मुस्काता हो
तब साहस करके कोई लेखनी
भावों में अनुभव को जनती है
ऐसे में कविता बनती है
ऐसे में कविता बनती है
(1)
जब किसी जगह पर छोटे बच्चे
भूख के करण बिलख रहे हों
और कहीं पर नेताजी की
महफ़िल में प्याले छलक रहे हों
जब निर्धनता से हार मानकर
कुछ लोग भाग्य पर सिसक रहे हों
और कुछों के घर व आँगन
धन-अम्बरों से खनक रहे हों
जब कहीं अँधेरा छाया हो
और कहीं दिवाली मनती है
ऐसे में कविता बनती है
ऐसे में कविता बनती है
(2)
जब सच से नाता रखने वाले
अन्यायों से हार तरहे हों
रिश्वत लेकर कुछ अधिकारी
सच की गरिमा को मार रहे हों
जब कपटी और बेईमान लोग
झूठे आडम्बर धार रहे हों
और सभी बेबस हो करके
इनको ही स्वीकार रहे हों
जब अहंकार अभिमानों की
हर और ध्वजाएँ तनती हैं
ऐसे में कविता बनती है
ऐसे में कविता बनती है
(3)
-कालीशंकर सौम्य
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