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Friday, June 17, 2011

हालत एक गरीब किसान की / हरियाणवी


कात्तिक बदी अमावस थी और दिन था खास दीवाळी का
आंख्यां कै म्हां आंसू आ-गे घर देख्या जिब हाळी का ।
कितै बणैं थी खीर, कितै हलवे की खुशबू ऊठ रही
हाळी की बहू एक कूण मैं खड़ी बाजरा कूट रही ।
हाळी नै ली खाट बिछा, वा पैत्यां कानी तैं टूट रही
भर कै हुक्का बैठ गया वो, चिलम तळे तैं फूट रही ॥
चाकी धोरै जर लाग्या डंडूक पड़्या एक फाहळी का
आंख्यां कै म्हां आंसू आ-गे घर देख्या जिब हाळी का ॥
सारे पड़ौसी बाळकां खातिर खील-खेलणे ल्यावैं थे
दो बाळक बैठे हाळी के उनकी ओड़ लखावैं थे ।
बची रात की जळी खीचड़ी घोळ सीत मैं खावैं थे
मगन हुए दो कुत्ते बैठे साहमी कान हलावैं थे ॥
एक बखोरा तीन कटोरे, काम नहीं था थाळी का
आंख्यां कै म्हां आंसू आ-गे घर देख्या जिब हाळी का ॥
दोनूं बाळक खील-खेलणां का करकै विश्वास गये
मां धोरै बिल पेश करया, वे ले-कै पूरी आस गये ।
मां बोली बाप के जी नै रोवो, जिसके जाए नास गए
फिर माता की बाणी सुण वे झट बाबू कै पास गए ।
तुरत ऊठ-कै बाहर लिकड़ ग्या पति गौहाने आळी का
आंख्यां कै मांह आंसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥
ऊठ उड़े तैं बणिये कै गया, बिन दामां सौदा ना थ्याया
भूखी हालत देख जाट की, हुक्का तक बी ना प्याया !
देख चढी करड़ाई सिर पै, दुखिया का मन घबराया
छोड गाम नै चल्या गया वो, फेर बाहवड़ कै ना आया ।
कहै नरसिंह थारा बाग उजड़-ग्या भेद चल्या ना माळी का ।
आंख्यां कै मांह आंसू आ-गे घर देख्या जब हाळी का ॥

कवि नरसिंह

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